पौराणिक कथाओं और बौद्ध साहित्य में बागमती का नाम बड़ी प्रमुखता से उभरता है। स्कंदपुराण के हिमवत्खंड के नेपाल महात्म्य में बागमती के बारे में बहुत सी कहानियाँ मिलती हैं।
प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान विष्णु नृसिंह रूप धारण कर के हिरण्यकश्यप को मारने के बाद थक कर विश्राम करने के लिए हिमालय की ओर चले गए और मृगेन्द्र (सिंह) के रूप में वहाँ स्थित हुए। नृसिंह को खोजता हुआ प्रह्लाद भी उनके पीछे-पीछे गया और जब वे दिखाई नहीं पड़े तो उसने वहीं एक हजार वर्ष तक कड़ी तपस्या की। प्रह्लाद की तपस्या देख कर भगवान शंकर तक प्रसन्न हो गए और उन्होंने जोर से अट्टहास किया। महादेव के अट्टहास से हिमालय की कन्दरा से फेन, तरंग और माला से युक्त पुण्यजला, निर्मला वाघमती नदी निकली। महादेव ने प्रह्लाद से कहा, ‘‘हे दैत्येन्द्र (प्रह्लाद)! मेरे वचन से यह नदी हिमालय से बाहर आई है अतः इस नदी का नाम निःसन्देह वाग्वती होगा।
वचनान्मय दैत्येन्द्र बहिर्याता चता नदी
अतोऽस्या वाग्वती नाम भविष्यति न संशयः।
भगवान विष्णु यहाँ मृगेन्द्र रूप धर कर स्थित हुए थे अतः इस स्थान का नाम वैष्णव क्षेत्र होगा। इसके ऊपरी भाग में शिवलिंग्मय शुभ स्थान है जो संसार में शिवपुरी नाम से प्रसिद्ध होगा। वाग्वती के उद्गम स्थल पर स्नान कर के जो शिवपुरी के दर्शन करेगा, उसके जन्मान्तरकृत पाप निःसन्देह नष्ट हो जायेंगे। ऐसा कह कर महादेव अर्न्तध्यान हो गए।’’ वाङ्गती, वाग्वती आदि अनेक नामों का अपभ्रंश होते होते इस नदी का नाम अब बागमती हो गया है और यही नाम प्रचलन में है।
बागमती से सम्बन्धित एक दूसरी कथा भी स्कन्दपुराण में कही गयी है। कहते हैं कि हिमालय के दक्षिण भाग में एक अति प्रसिद्ध श्लेष्मान्तक वन था। वह जंगल नाना प्रकार के पेड़-पौधों-लताओं से भरा पड़ा था और उसमें फलों के वृक्ष भी प्रचुर मात्र में थे जिन पर बहुत से पक्षी निवास करते थे। बागमती नदी के किनारे स्थित इस सुरम्य वन को देख कर भगवान शंकर ने कैलास पर्वत तथा काशी छोड़ कर पार्वती के साथ श्लेष्मान्तक वन में रहने का निश्चय किया। उन्होंने सबसे छिपे रहने के उद्देश्य से मृग का रूप धारण किया और पार्वती मृगी-रूपा बन कर उनके साथ विहार करने लगीं। देवताओं की दृष्टि से दूर अदृश्य रूप में विराजमान भगवान शंकर के लिए सारा जगत व्यथित हो गया। देवताओं ने भगवान शंकर को खोजने के लिए सभी संभव प्रयत्न किये और उन्हें ग्राम, नगर, वन, नदी और पर्वतादि स्थानों पर खोजा। अन्ततः वे श्लेष्मान्तक वन पहुँचे जहाँ उन्होंने एक सींग और तीन नेत्र वाले सुन्दर और पुष्ट मृग के रूप में महादेव को पहचान लिया। उनके साथ मृगी-रूपा पार्वती भी थीं। देवताओं ने शंकर की स्तुति की और उन्हें मृग-रूप त्याग करके कैलास या काशी चलने की प्रार्थना की मगर शंकर नहीं माने और न ही उन्होंने मृग रूप ही त्यागा। तब ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि देवता मृग को बलपूर्वक अपने वश में करने की सोचने लगे और जैसे ही उन्होंने मृग के सींग पकड़ने की चेष्टा की, मृग रूपी शंकर कूद कर बागमती के दूसरे तट पर जाकर स्थित हो गए मगर इस भाग-दौड़ में उनके सींग के चार टुकड़े हो गए। इन चार टुकड़ों में से एक-एक टुकड़ा ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र ने लेकर अपने-अपने लोकों में स्थापित कर दिया। चौथा टुकड़ा बागमती के दाहिने तट पर गिरा। शंकर ने उस रम्य वन को छोड़ कर जाने से मना कर दिया और कहा कि इस लोक में पशु रूप धारण करने के कारण उनका नाम पशुपति होगा। कहा जाता है कि बागमती के किनारे मृग के सींग का जो चौथा टुकड़ा गिरा वही वहाँ शिवलिंग बन कर स्थापित हो गया और बाद में इसी स्थान पर पशुपतिनाथ के नाम से शिवलिंग का पूजन होने लगा। पार्वती भी शंकर के साथ उनके पास रहना चाहती थीं। शंकर ने पार्वती से कहा कि तुम मेरे वात्सल्य के कारण मेरे साथ रहना चाहती हो अतः अब से भक्तगण तुम्हें वत्सला कह कर पुकारेंगे और तबसे पार्वती वत्सला नाम धारण कर वहीं बागमती के किनारे निवास करने लगीं। बागमती के पूर्वी तट पर पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस मन्दिर के बारे में एक दूसरी किंवदन्ती है कि ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शंकर का यह सींग बहुत काल तक मिट्टी के नीचे दबा रहा और उसके ऊपर घास जम गई। किसी ग्वाले की एक गाय नियमित रूप से इस स्थान पर आती थी और अपना दूध वहीं देकर चली जाती थी। कुछ दिनों के बाद ग्वाले ने अनुभव किया कि उसकी दुधारू गाय दूध नहीं दे रही है तब उसने गाय पर नज़र रखना शुरू किया और अन्ततः उस स्थान को खोज निकाला जहाँ गाय के थन से दूध अपने आप निकल जाया करता था। ग्वाले ने उस स्थान को खोदा जहाँ उसे शिवलिंग मिला। इसके बाद धीरे-धीरे वहाँ ग्वाले इकट्ठा होकर पूजा-अर्चना करने लगे। कालक्रम में इस स्थान की महिमा बढ़ी और यहाँ विधिवत पशुपतिनाथ के भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ।
कहते हैं कि चम्पकारण्य मण्डल में श्वेतका नाम की एक नगरी थी जो किसी भी मायने में इन्द्र की राजधानी अमरावती से कम सुन्दर और समृद्ध नहीं थी। वहाँ सूर्यकेतु नामक एक धर्मात्मा राजा राज करता था जो विष्णु का भक्त था। मिथिला के एक पराक्रमी राजा हंसध्वज से सूर्यकेतु का किसी तरह वैर हो गया और उसने सूर्यकेतु के राज्य पर चढ़ाई कर दी, उसके बहुत से योद्धाओं को मार डाला और सूर्यकेतु को खदेड़ दिया। राज्यविहीन सूर्यकेतु पर भारी विपत्ति आ पड़ी और वे कहाँ जाए और क्या करे ऐसा सोच ही रहा था कि वहाँ नारद जी प्रकट हो गए और राजा से उसकी चिन्ता का कारण पूछा। राजा ने सारी परिस्थिति नारद जी को समझायी तो उन्होंने उसे अपनी असुरक्षित राजधानी श्वेतका को छोड़ कर अपनी पत्नी और राजकुमारी चन्द्रावती के साथ हिमालय में मृगेन्द्र-शिखर पर जाकर रहने के लिए कहा। नारद जी के इस उपदेश को सुन कर राजा सूर्यकेतु अपनी पत्नी, पुत्री चन्द्रावती और बचे हुए योद्धाओं के साथ श्वेतका नगरी छोड़ कर मृगेन्द्र-शिखर पर निवास करने के लिए चले गए। नारद ने श्वेतकेतु के कल्याण के लिए दैत्यराज वाणासुर के पुत्र महेन्द्रदमन की कथा भी सुनायी। शोणितपुर में एक दैत्यराज वाणासुर अपनी पतिभक्ता पत्नी रोहिणी के साथ सुखपूर्वक निवास करता था। इन दोनों को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसके जन्म के समय पृथ्वी पर बड़ा भूकम्प आया और देवराज इन्द्र का बायां नेत्र फड़कने लगा। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने इस बालक के जन्म के समय भविष्यवाणी की कि यह बालक इन्द्र को अपने पराक्रम से हरायेगा और इसलिए उन्होंने उसका नाम महेन्द्रदमन रखा। महेन्द्रदमन की एक अपूर्व सुन्दरी बहन भी थी जिसका नाम प्रभावती था। शुक्राचार्य ने महेन्द्रदमन को इन्द्रविजय के लिए तपस्या करने की सलाह दी और उसने रुद्रधारोदयतीर्थ में हजार वर्षों तक केवल वायु का सेवन करके तपस्या करते हुए ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया और उनसे अजेय होने का वर मांग लिया। शुक्राचार्य से अभिषेक करवा कर महेन्द्रदमन राजा बन गया और राजा बनते ही उसने इन्द्र को संवाद भेजा कि ब्रह्मा की कृपा से अब वह अजेय है अतः इन्द्र अपना राज्य उसके हवाले कर दें। बिना युद्ध किये हुए अपना राज्य न देने की बात कह कर इन्द्र ने महेन्द्रदमन को अपना पराक्रम दिखलाने के लिए ललकारा तो दैत्य अपने बड़े भाई शंखासुर और अनुज कच्छपासुर को आगे करके पूरी सेना लेकर इन्द्रपुरी पर चढ़ाई करने के लिए उद्यत हुआ। भयंकर युद्ध के बाद इन्द्र युद्धक्षेत्र से भाग खड़े हुए और आकाश में शरण लेने के लिए उड़ गए। तब महेन्द्रदमन विजेता भाव से इन्द्र की राजधानी अमरावती में प्रवेश के लिए प्रयत्नशील हुआ। उसी समय ब्रह्मा जी ने वहाँ प्रकट होकर परमकीर्ति पाने पर महेन्द्रदमन की प्रशंसा की मगर साथ ही उसे इन्द्र की राजधानी अमरावती को छोड़ कर मृगेन्द्र-शिखर के पास अपनी नई राजधानी सुप्रभानगरी बसाने और वहीं जाकर रहने का आदेश भी दिया। ब्रह्मा जी की आज्ञा पा कर महेन्द्रदमन ने सुप्रभानगरी की ओर प्रस्थान किया। उसके चले जाने के बाद ब्रह्मा जी ने थके हारे इन्द्र से कहा कि मथुरा में कृष्ण जन्म के बाद महादेव के शाप से दग्ध कामदेव प्रद्युम्न नाम धारण करके उनके पुत्र के रूप में पैदा होगा और वही प्रद्युम्न इस महेन्द्रदमन को मार डालेगा।
उधर ब्रह्मा जी की आज्ञा से महेन्द्रदमन ने चन्दन पर्वत की उत्तर दिशा की उपत्यका में सुप्रभानगरी का निर्माण किया। उसने चन्दन पर्वत पर एक रम्य उद्यान बनाया जिसमें अपनी मृगलोचना बहन प्रभावती के रहने के लिए स्थान निश्चित किया। दैत्य ने मृगेन्द्र-शिखर के बाहर बहने वाली वाग्वती नदी की धारा को भी रोक दिया जिससे पूरा श्लेष्मान्तक वन सरोवर में बदल गया जिसे देख कर महेन्द्रदमन की खुशी का ठिकाना न रहा। वाग्वती का पानी सरोवर से आगे न जाने पाये इसकी रक्षा के लिए उसने अपने भाइयों शंखासुर और कच्छपासुर को नियुक्त किया। चन्दन पर्वत और श्लेष्मान्तक वन (अब सरोवर) में निवास करती हुई प्रभावती ने हिमालय पुत्री वत्सला देवी की आराधना करके उन्हें प्रसन्न कर लिया जिन्होंने उसे कृष्णपुत्र प्रद्युम्न की पत्नी होने का आशीर्वाद दिया।
वाग्वती का पानी घिर जाने के कारण जिस सरोवर का निर्माण हुआ उसके एक छोर पर सुप्रभानगरी थी जहाँ महेन्द्रदमन और प्रभावती का निवास था तो दूसरे छोर पर मृगेन्द्र-शिखर अवस्थित था जहाँ नारद जी ने सूर्यकेतु को रहने के लिए स्थान निर्धारित किया था। इस तरह सूर्यकेतु और महेन्द्रदमन अब आमने-सामने आ गए। सूर्यकेतु महेन्द्रदमन की कीर्ति और पराक्रम से परिचित था और उसने अपने आप को सुरक्षित और निर्भय बनाये रखने के लिए एक बार महेन्द्रदमन के पास दिव्य रत्नों का संग्रह भिजवाया। एक दिन महेन्द्रदमन का एक दैत्य सेवक किसी तरह मृगेन्द्र-शिखर पर आ गया और उसने वहाँ अप्सरातुल्य राजकुमारी चन्द्रावती को देखा और वापस जाकर उसने महेन्द्रदमन को बताया कि चन्द्रावती एक उत्तम स्त्री रत्न है और पृथ्वी पर महेन्द्रदमन के अलावा दूसरा कोई पुरुष नहीं है जो उसका पति हो सके। दैत्यराज ने सूर्यकेतु को उनकी कन्या राजकुमारी चन्द्रावती से अपने विवाह का प्रस्ताव भिजवाया जिसे राजा ने यह कह कर टाल दिया कि राजकुमारी अभी बालिका है और विवाह के सर्वथा अयोग्य है। यह संवाद भेजने के बाद भी राजा की चिन्ता कम नहीं हुई और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर अपने और राजकुमारी के भविष्य के बारे में सोचता रहा। श्वेतका नगरी का त्याग तो राजा के लिए कठिन था ही, दैत्य का राजकुमारी को मांगना तथा न दे सकने पर उत्पन्न होने वाला स्वाभाविक वैर तो और भी दुःख देने वाला था। पराक्रमी दैत्य के इतने निकट रहते हुए उसका विरोध भी संभव नहीं था।
इसी समय वहाँ नारद जी एक बार फिर प्रकट हुए और उन्होंने सूर्यकेतु से कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। आप चन्द्रावती का विवाह प्रद्युम्न से कर दीजिये और राज्य सहित सुरक्षित हो जाइये। उन्होंने स्वयं द्वारका जाकर श्रीकृष्ण से प्रद्युम्न को ले आने की बात भी सूर्यकेतु से कही।
द्वारका जाते समय नारद ने चन्दनगिरि शिखर पर प्रभावती को देखा और उससे पूछा कि क्या अभी तक तुम्हारे होने वाले पति, कृष्णपुत्र प्रद्युम्न इधर नहीं आये? उन्होंने प्रभावती को राजकुमारी चन्द्रावती का प्रकरण भी बताया और कहा कि वह चन्द्रावती के लिए प्रद्युम्न को लेने द्वारका जा रहे हैं और वत्सला देवी के आशीर्वाद से प्रद्युम्न प्रभावती से भी सम्बन्धित होंगे। नारद जी ने प्रभावती को वहीं रहने के लिए कहा मगर प्रभावती को डर था कि द्वार पर शंखासुर नाम के बहुत ही दुर्दान्त दैत्य का पहरा है। ऐसे में प्रद्युम्न का अभीष्ट कैसे पूरा होगा? प्रभावती को यह भी डर था कि प्रद्युम्न के प्रेम में फँस कर अगर वह अपने बड़े भाई महेन्द्रदमन के वध में भागीदार बनती है तो उसकी बड़ी जग-हंसाई होगी। प्रभावती को सांत्वना देते हुए नारद मुनि प्रद्युम्न को लाने द्वारका चले गए।
द्वारका पहुँच कर नारदजी ने श्रीकृष्ण को विधि के विधान की बात बताई और प्रद्युम्न को न केवल हिमालय भेजने के लिए प्रेरित किया वरन् स्वयं श्रीकृष्ण को भी अपने पुत्र प्रद्युम्न का पराक्रम और विजय पर्व देखने के लिए राजी कर लिया। प्रद्युम्न और दैत्यों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें प्रद्युम्न ने शंखासुर और महेन्द्रदमन को पहले मार गिराया मगर कच्छपासुर को हरा पाना बहुत ही शौर्य और पराक्रम का काम था। कच्छपासुर ने, जिसे महेन्द्रदमन ने बिलद्वार की रक्षा के लिए नियुक्त किया था, प्रद्युम्न से घोर युद्ध किया। उस समय विष्णु-रूप में गरुड़ पर सवार श्रीकृष्ण भी आ गए थे। नारद ने प्रद्युम्न को बताया कि वाग्वती के पवित्र जल के सदा सम्पर्क में रहने वाला कच्छपासुर तब तक नहीं मरेगा जब तक वाग्वती से उसका सम्पर्क समाप्त न हो जाए। गरुड़ के पंखों की मदद से प्रद्युम्न कच्छपासुर को सरोवर के द्वार से दूर ले गए और उसे पीठ के बल लिटा कर मार डाला। कच्छपासुर के मारे जाने के बाद सरोवर का अवरोध समाप्त हो गया और उसका पानी एक बार फिर बह निकला। इस प्रकार तीनों दैत्यराज मारे गए, वाग्वती स्वतंत्र हो गयी और उसने स्त्री रूप में प्रकट होकर विष्णु-रूपी श्रीकृष्ण की आराधना की और उनसे गंगा से मिलने जाने की इच्छाव्यक्त की और उनका आशीर्वाद ले कर उस दिशा में प्रस्थान किया। प्रद्युम्न ने चन्द्रावती और प्रभावती से विधिवत विवाह किया और उनके साथ द्वारका चले गए।
कथा प्रसिद्ध है कि एक बार चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ करने की सोची जिससे तीनों लोकों में वह अपना राज स्थापित कर सके। इसी उद्देश्य से वह देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास गए कि वह उनका पौरोहित्य स्वीकार कर लें। बृहस्पति ने चन्द्रमा को राजसूय यज्ञ न करने की सलाह दी क्योंकि राजसूय यज्ञ की व्यवस्था करने और उसे सम्पन्न करने में बहुत श्रम और कष्ट होता है और यह अगर सम्पन्न हो भी जाए तो राजा के दायित्वों में अप्रत्याशित वृद्धि होती है और उसका निर्वाह करना भी कम कष्टदायक नहीं होता। इन उपदेशों का चन्द्रमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने राजसूय यज्ञ करने की अपनी जिद नहीं छोड़ी और बृहस्पति को उसका यज्ञ सम्पन्न करवाना पड़ गया। चन्द्रमा के पराक्रम को देखते हुए किसी अन्य देवता को उसका विरोध करने का साहस नहीं हुआ। यज्ञ की समाप्ति के बाद जब चन्द्रमा का अभिषेक होने वाला था तभी उसकी दृष्टि गुरुपत्नी तारा पर पड़ी और तारा ने भी चन्द्रमा के संकेतों का प्रतिकार नहीं किया। काम के वशीभूत अहंकारी चन्द्रमा सभी देवताओं की उपस्थिति में तारा को अपने कक्ष में ले गया और उनके साथ रमण किया। बृहस्पति द्वारा बार बार समझाये जाने के बाद भी कि पर स्त्री का हरण अगर पाप है तो गुरुपत्नी का हरण तो महापाप होता है, चन्द्रमा ने यह जघन्य कृत्य कर ही डाला। अन्याय की पराकाष्ठा तब हुई जब देवताओं के राजा इन्द्र ने भी चुप्पी साध ली। इस पर क्रोधित महादेव ने चन्द्रमा को दण्ड देने का निश्चय किया और वह उसका शिर विच्छिन्न करने ही वाले थे कि ब्रह्मा ने महादेव से चन्द्रमा को क्षमा करने की प्रार्थना की और प्रायश्चित करने के मार्ग का सुझाव देने को कहा।
महादेव ने चन्द्रमा को महापापी बताते हुए कहा कि यह यक्ष्मा रोग से पीडि़त होकर हमेशा क्षीण होगा और सभी देवों से बहिष्कृत होगा। ऐसा कह कर महादेव कैलाश चले गए। महादेव के शाप से चन्द्रमा कभी शान्ति से नहीं रह सका और यक्ष्मा के कारण उसका शरीर क्षीण होता रहा। प्रायश्चित के लिए वह बहुत से तीर्थों में घूमा। अन्ततः वह अगस्त्य मुनि के परामर्श पर श्लेष्मान्तक वन में वाघ्मती नदी के तट पर तपस्या में यह सोच कर स्थिर हुआ कि उसने गुरुपत्नी के साथ रमण करके पशुतुल्य कार्य किया है। उसने निश्चय किया कि जब तक वह इस दोष से मुक्त नहीं हो जायेगा तब तक वह अपनी तपस्या भंग नहीं होने देगा। कठोर तपस्या कर के चन्द्रमा ने महादेव को प्रसन्न कर लिया और शाप से मुक्त हो गया। वाघ्मती के स्नान, उसके जल का पान और वत्सला देवी (पार्वती) तथा पशुपतिनाथ के दर्शन से उसकी पापमुक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ।
स्कंदपुराण कब लिखा गया, किसने लिखा, इन कथाओं की वास्तविकता क्या है, इन कथानकों की कोई प्रामाणिकता है भी या नहीं, इन विवादों में पड़े बिना हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि इस कहानी के माध्यम से कथाकार ने नदी के पानी की पवित्रता और उसके उर्वरक गुण को परखने की कल्पना की एक ऊँची उड़ान जरूर भरी थी। इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऐसी कल्पनाएं अकारण नहीं होतीं।