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बागमती नदी - तटबन्धों की उपयोगिता का द्वन्द

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • September-28-2018

तटबन्धों का निर्माण कर के बाढ़ नियंत्रण का प्रयास करना इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वसुलभ परन्तु सर्वाधिक विवादास्पद तरीका है। बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबन्धों के निर्माण और उनकी भूमिका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफ़ी है कि मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफ़ी मात्रा में गाद (सिल्ट/बाल/पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिससे नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवेल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊपर उठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊँचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को जितना ज्यादा ऊँचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल-जमाव का ख़तरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवेल तटबन्धों के टूटने का कारण बनते हैं। तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहने के कारण, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव या उनके लिए-दिए बैठ जाने के कारण उनमें दरारें पड़ती हैं। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद बड़ा हो जाता है और वे टूट जाते हैं।

किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धाराओं का पानी मुख्य नदी में न जाकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नए-नए स्थानों को डुबोयेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो। इस समस्या का जो जाहिर समाधान है वह यह कि जहाँ सहायक धारा तटबन्ध पर पहुँचती है वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाए। लेकिन स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवेल ज्यादा हुआ तो उसका पानी सहायक धारा में उलटा बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। इसके अलावा अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर स्लुइस गेट अक्सर जाम हो जाया करते हैं क्योंकि नदी की तरफ फाटकों के सामने बालू जमा हो जाता है। इस तरह से लगभग बरसात के पूरे मौसम में स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और सहायक धारा का पानी कन्ट्रीसाइड के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही है। इस तरह से स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब मुख्य नदी में पानी का स्तर काफी नीचे चला जाए। इस बीच तथाकथित बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में जो नुकसान होना था वह हो चुकता है।

जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जाएं जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबन्ध और सहायक धारा के तटबन्ध के बीच वर्षा का जो पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बन कर ऊपर उड़ सकता है या जमीन में रिस कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुए पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाए। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधान करना था तो मुख्य नदी या सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल-समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के कन्ट्री साइड में बसे लोग भी जल-जमाव से निजात पाने के लिए तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा, न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन पायेगा जो कभी टूटे नहीं। अत: दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्रीसाइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं।

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी, जो अपने आप नदी में चला जाता, तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में जमीन के लिए उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी खेतों तक नहीं पहुँच पाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपाई आजकल रासायनिक खाद से की जाने लगी है जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह की खाद की नकद कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है। अत: तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है।

उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबन्ध बना दिया जाता है तो उसके पानी की निकासी का रास्ता कम हो जाने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धारा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव करने की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी की प्रवाह क्षमता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाती है जिससे बाढ़ का प्रभाव कम हो जाता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पायी है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है। या कम करता है। अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है-ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं या फिर किसी योजना को स्वीकार करने या उसे खारिज करने के लिए अपनी सुविधा या अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तक की व्याख्या करते हैं। तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ यह दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई भी अनजान आदमी उंगली नहीं उठा सकता। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ और स्वार्थ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तक का सहारा ले कर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है, उसमें.  राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और बड़े से बड़े इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

सच यह है कि दामोदर, महानदी, ब्राह्मणी आदि नदियों को नियंत्रित करने की अंग्रेजों की कोशिशें काम नहीं आईं और उनको लगा कि अगर कोई तटबन्ध, मान लीजिये, 10 साल तक ठीक-ठाक काम करता है और ग्यारहवें साल टूट जाता है तो इस एक साल में हुए जान-माल के नुकसान, तटबन्ध का पुनस्र्थापन तथा राहत और पुनर्वास पर होने वाला खर्च आदि सब मिला कर पिछले दस वर्षों में हुए फायदे पर भारी पड़ता था और इस तरह की बाढ़ नियंत्रण उनके लिए निश्चित रूप से घाटे का सौदा था। इसलिए उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से ही इस अनुष्ठान से हाथ खींच लिया मगर कोई जमीन्दार, राजा-महाराजा या जन-साधारण अपने पैसे से और खुद खतरा उठा कर कहीं तटबन्ध बनाता था तो वह उसे टोकने भी नहीं आते थे। बिहार की सबसे चंचल नदी कोसी को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजों ने सिर्फ गलचौरा किया और समस्या को टालते रहे। यह पूरी बहस अन्यत्र उपलब्ध है, अत: हम उसके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे।

भारत की आजादी और तटबन्धों की वापसी

देश को आजादी मिलने के बाद 1952 तक अंग्रेज इंजीनियरों और प्रशासकों की विरासत बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में कायम रही मगर जब 1953 में कोसी नदी पर तटबन्धों के निर्माण की तकनीकी, प्रशासनिक, राजनैतिक, नैतिक, आदर्शवादी, सामाजिक, देशी और विदेशी विशेषज्ञों आदि से सभी प्रकार की स्वीकृति मिल गयी तब तटबन्धों के बाजार में फिर उछाल आया। कोसी पर तटबन्धों की स्वीकृति के बाद बाढ़ और उसके नियंत्रण पर सारी बहस समाप्त हो गयी और उत्तर बिहार की प्राय: सभी छोटी-बड़ी नदियों पर बिना किसी बहस-मुबाहसे के तटबन्धों के निर्माण का काम शुरू हुआ।

1990 से 2006 के बीच इन तटबन्धों के निर्माण में जरूर कमी आई या यूँ कहें कि इस तरह का कोई निर्माण हुआ ही नहीं। तटबन्ध निर्माण में यह ठहराव किसी विचारधारा या आदर्श के अधीन हुआ हो, ऐसा नहीं था। इसके मूल में जहाँ एक ओर अकर्मण्यता थी तो दूसरी तरफ राजनैतिक छल। विडम्बना यह थी कि जल-संसाधन विभाग के मंत्री महोदय प्रायः हर उपलब्ध मंच से तटबन्धों की भर्त्सना करते थे जबकि उनका विभाग तटबन्धों का निर्माण न कर पाने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रोता था। जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार का वर्ष 1991-92 की वार्षिक रिपोर्ट कहती है, "अब तक निर्मित तटबन्धों की कुल लम्बाई लगभग 3465 कि०मी० है, जिससे लगभग 29.28 लाख हेक्टर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान होती है। 10 चालू तटबन्ध अभी निर्माणाधीन हैं। इनकी कुल प्रस्तावित लम्बाई 872.74 कि०मी० तथा लाभान्वित क्षेत्र 6,36,560 हेक्टयर है। अब तक केवल 556.69 कि०मी० लम्बाई में उनका निर्माण हुआ  है जिससे 3,18,110 हेक्टर भूमि को आंशिक सुरक्षा मिल रही है। निधि के अभाव में इन्हें पूरा करने में कठिनाई हो रही है। इसके अलावे निर्मित तटबंधों के रख-रखाव एवं सुरक्षात्मक कार्य कर बड़ी राशि सरकार को व्यय करना पड़ता है।'' जल-संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्टों में लम्बे समय तक यह सूचना दुहरायी जाती रही। एक आम आदमी के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि सच मंत्री महोदय बोल रहे थे या उनके विभाग की रिपोर्ट। एक ओर जल संसाधन मंत्री द्वारा तटबंध की भर्त्सना और दूसरी ओर उनके विभाग की रिपोर्ट में निधि की कमी के कारण तटबंध न बना पाने के रुदन का अर्थ सामान्य जनता क्या निकाले? इस दौरान राज्य सरकार नेपाल में प्रस्तावित बांधों के हक में अखंड मंत्र जाप भर करती रही और नेपाल में बांध निर्माण का वास्ता देकर अपनी सारी जिम्मेवारियों से बचती रही। सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ 2006 में तटबन्धों के निर्माण में फिर तेजी आयी है। सरकार ने बड़े पैमाने पर तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत करने का काम अपने हाथ में लिया है। इस प्रयास का क्या परिणाम निकलेगा यह तो भविष्य के गर्भ में है पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि इसका सुफल या कुफल जब भी आयेगा तब इनके निर्माण से जुड़े सारे सम्बद्ध लोग या तो इस दुनिया में नहीं होंगे या इतने अप्रभावी और महत्वहीन हो चुके होंगे कि उनसे किसी उत्तर की किसी को कोई अपेक्षा ही नहीं रहेगी। उस समय जो लोग उत्तर देने के लिए उपलब्ध होंगे वह सारा दोष पिछली पीढ़ी के नेताओं और इंजीनियरों पर डाल कर खुद को पाक साफ बता कर निकल जायेंगे।

अब तक की प्रगति

जहाँ तक बागमती नदी का प्रश्न है, उस पर 1950 के दशक में दाहिने किनारे पर सोरमार हाट से बदलाघाट तक 145.24 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध का निर्माण हुआ। नदी के बायें किनारे पर हायाघाट से फुहिया के बीच 72 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों का निर्माण हुआ। सरकार का दावा है कि इन तटबन्धों के निर्माण से 1140 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बाढ़ से बचाया जा सका है। इसके बाद 1971 और 1978 के बीच बागमती नदी के ऊपरी  हिस्सों में नदी के दायें किनारे पर 56.95 किलोमीटर तथा बायें किनारे पर 71.41 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बनाये गए। इसके साथ ही लालबकैया तथा बागमती नदी के बीच स्थित वैरगनियाँ प्रखंड (जिला सीतामढ़ी) को बाढ़ से सुरक्षा देने के लिए 21 किलोमीटर लम्बाई का एक रिंग बांध भी निर्मित किया गया। सरकार का अनुमान था कि इन तटबन्धों/रिंग बांधों का निर्माण करके उसने 1849 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित कर लिया है जिसमें बैरगनियाँ रिंग बांध के अन्दर के गाँव पूरी तरह से  सुरक्षित हो गए हैं। इस तरह से बागमती को बायाँ किनारा रुन्नी सैदपुर से हायाघाट तक तथा दाहिना किनारा रुन्नी सैदपुर से सोरमार हाट तक अभी भी खुला रह गया था। इन तटबन्धों का निर्माण करके सरकार को विश्वास हो चला था कि बीच के खुले हिस्से (रुन्नी सैदपुर से सोरमार हाट के बीच) में बाढ़ या तो नदी के पानी के फैलने से आती है या फिर पानी की निकासी होने वाली कठिनाइयों के कारण ऐसा होता है।

इसके बाद लगभग तीस वर्षों तक बागमती परियोजना में सब कुछ शान्त रहा तटबन्ध निर्माण का तीसरा दौर 2006 में शुरू हुआ  जब रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक नदी के बाकी बचे लगभग 90 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों के निर्माण को पूरा करने की कोशिश शुरू हुई है। 792 करोड़ रुपयों की अनुमानित लागत से बनने वाले इन तटबन्धों की मदद से रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक के क्षेत्रों की  बाढ़ से रक्षा का प्रावधान है। इस प्रयास की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट हिन्दुस्तान स्टीलवर्स कन्सट्रक्शन लिमिटेड नाम की एक सरकारी संस्था  ने बनायी है और उसी को इस परियोजना के क्रियान्वयन का जिम्मा दिया गया है। यह विस्तृत परियोजना रिपोर्ट एक निहायत ही घटिया किस्म का दस्तावेज है। इसमें कोई तीन चौथाई हिस्से में 1983 में बनायी गयी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट से उद्धरण मात्र दिये गए हैं और योजना के औचित्य पर न तो कोई आलेख है और न ही जनता और कृषि को होने वाले किसी संभावित लाभ की चर्चा है। इस रिपोर्ट में न तो बाढ़ से होने वाली क्षति और उसके कारणों का विश्लेषण है और न उसे समाप्त करने या कम करने की कोई दृष्टि नज़र आती है। इस रिपोर्ट में जब योजना के क्रियान्वयन के बाद होने वाले लाभ की कोई चर्चा नहीं है तो योजना से होने वाले अवांछित प्रभावों और उनके निदान के लिए किये जाने वाले प्रयासों का जिक्र कैसे होगा? इस रिपोर्ट में बाढ़ से सुरक्षा दिये जाने वाले क्षेत्र और उसके परिमाण तक का भी जिक्र नहीं है। अपना नाम जाहिर न किये जाने की शर्त पर बिहार के जल संसाधन विभाग में काम कर चुके बहुत से वरिष्ठ इंजीनियरों का कहना है कि अव्वल तो हिन्दुस्तान स्टीलवर्स कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को इस तरह के काम का कोई अनुभव ही नहीं है और दूसरे यह सारा काम टुकड़े-टुकड़े कर के उनके हवाले किया गया है जिसकी कोई समेकित परियोजना रिपोर्ट बन भी नहीं सकती। वो यह भी मानते हैं। कि जितने पैसे इस तथाकथित परियोजना रिपोर्ट के बनाने में खर्च किये गए उसके मुकाबले बहुत कम खर्च में जल-संसाधन विभाग यह काम खुद कर सकता था पर राजनीति ने यह होने नहीं दिया।

इस पूरे प्रकरण पर राजनैतिक हलकों में अगस्त 2009 में जबर्दस्त कीचड़ उछला था जब तिलक ताजपुर बागमती नदी का दाहिना तटबन्ध अगस्त को टूट गया। कहा जाता है कि हिन्दुस्तान स्टीलनर्स कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को यह काम 2005 में तब दिया गया था जब बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल थे और यहाँ राष्ट्रपति शासन था। पूर्व राज्यपाल ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया और वर्तमान सरकार को इसका दोषी बताया। इस पूरे मसले पर मीडिया तथा लोकसभा में गरमा गरम मगर अनिर्णित बहस हुई। विषयान्तर के कारण हम इसके विस्तार में नहीं जायेंगे।

यहाँ हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि जब योजना का आधार पत्र  ही इतना दरका हुआ हो तो योजना के भविष्य का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह बात अलग है कि सरकार का खुद का यह भी मानना है कि इस लम्बाई में नदी प्राय: समतल जमीन पर बहती है जिससे इसकी बाढ़ के पानी का कोसी या गंगा में निकासी होने में बहुत समय लगता है। अगर इन दोनों नदियों में से किसी में बाढ़ हो या पानी का ठहराव लम्बे समय के लिए हो जाए तो बागमती के पानी को भी ठहर जाना पड़ता है। यह ठहराव नदी से होने वाले कटाव को बढ़ाता है, तटबन्धों के ऊपर से  नदी के पानी के बहने के रास्ते तैयार करता है और जलजमाव को स्थाई बनाता है। अगर कभी दैव योग से बागमती और कोसी के साथ-साथ  गंगा में भी बाढ़ आ जाए तब गंगा के पानी को वापस इन नदियों में घुसने की परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं और ऐसी परिस्थिति से निबटना आसान नहीं होता।" जब सरकार हीं खुद इस बात को बिना कोई लाग लपेट या बहाना बनाये या विकल्प सुझाये इतनी सादगी और साफगोई से कबूल करती है तो फिर किसी को कोई शिकवा-शिकायत की गुंजाइश नहीं बचती। यह भविष्य में होने वाली घटनाओं और उनकी जिम्मेवारी से बच निकलने के तरीकों की ओर इशारा भी है।

यहाँ एक बात और भी ध्यान देने लायक है। इंजीनियरों के अनुसार हायाघाट से लेकर बदलाघाट तक नदी की धारा स्थिर थी, उसके कगार स्पष्ट और ऊँचे थे और उस पर तटबन्ध बना देने से कुछ लोगों का भला हो जाने की उम्मीद थी। उसी तरह ढंग से खोरीपाकर तक छिछला होने के बावजूद नदी की धारा में कोई खास परिवर्तन नहीं होता। जो भी परिवर्तन नदी की धारा में देखे गए हैं वे आम तौर पर खोरीपाकर के नीचे और कनौजर घाट के बीच में हुए है। अस्थिर प्रवाह वाली नदियों पर तटबन्ध बनाने पर सिद्धान्तत: इन्जीनियर परहेज करते हैं। शायद इसीलिए बागमती पर तटबन्धों के निर्माण की प्रक्रिया वहाँ से शुरू हुई जहाँ उसकी धारा  स्थिर थी। योजना के दूसरे फेज में ढंग से रुन्नीसैदपुर तक जो तटबन्ध बने उसमें भी वही सावधानी बरती जानी चाहिये थी मगर ऐसा हुआ नहीं। पता नहीं किस तकनीकी तर्क के आधार पर ढंग से रुन्नीसैदपुर तक तटबन्ध बनाये गए और क्यों बीच वाला हिस्सा, रुन्नीसैदपुर से हायाघाट तक, खुला छोड़ दिया गया। तटबन्ध निर्माण से बाढ़ नियंत्रण की कोशिश हमेशा से विवादास्पद रही है और अस्थिर धारा वाली नदियों पर तो यह विवाद और भी गंभीर हो जाता है। नदियों की धारा के स्थिर होने में हजारों वर्षों का समय लगता है न कि तीस वर्ष का जैसा कि बागमती परियोजना में मान लिया गया हुआ है।

अधवारा समूह की नदियों के नियंत्रण पर एक नज़र

जहाँ तक अधवारा समूह की नदियों का प्रश्न है तो 1960 के पूवार्द्ध में अधवारा नदी की तलहटी की सफाई जमुरा नदी और अधवारा के संगम स्थल से लेकर ऐग्रोपट्टी तक की गयी थी। इस सफाई से जो मिट्टी निकली उसी का इस्तेमाल नदी के किनारे तटबन्धों की शक्ल में कर लिया गया। इस योजना की अनुमानित लागत 50 लाख रुपये थी।"  

इन तथाकथित तटबन्धों के बीच का फासला 400 से 800 मीटर के बीच रखा गया और ऐसी उम्मीद की गयी थी कि 1954  की बाढ़ के समय नदी का जो प्रवाह 610 से 630 क्यूमेक (21,500 क्यूसेक से 22,000 क्यूसेक) के बीच था उसे सुरक्षित रूप से बहा ले जाने की समुचित व्यवस्था हो जायेगी। नदी में पानी बहने के लिए जो जगह नियत की गयी वह सर्वाधिक प्रवाह की क्षमता से आधी रखी गयी थी और इंजीनियरों को यह आशा थी कि उनका पुराना और घिसा-पिटा तर्क कि पानी को प्रवाह के लिए कम जगह मिलने पर उसका वेग बढ़ जायेगा और वह नदी की तलहटी खंगाल कर तथा किनारे काट कर उसके प्रवाह क्षेत्र को बढ़ा देगा और इस तरह बाढ़ नियंत्रण कर लिया जायेगा, एक बार फिर गलत साबित हुआ और समस्या जैसी थी वैसी ही बनी रह गयी और नदी की 80 किलोमीटर लम्बाई में किया गया यह काम प्राय: व्यर्थ हो गया।" समय-समय पर तटबन्ध टूटने की घटना ने बाढ़ की स्थिति को पहले से भी बदतर बना दिया। इससे कोई सबक न लेते हुए 1963-64 में नदी की सफाई और उसके फलस्वरूप तटबन्धों के निर्माण का एक दूसरा दौर खिरोई नदी पर ऐग्रोपट्टी से लेकर दरभंगा-बागमती से नदी के संगम एकमीघाट तक चलाया गया। तटबन्धों के विस्तार किये जाने की इस योजना पर 71.97 लाख रुपये खर्च किये जाने का अनुमान किया गया था। जाहिर है इस काम में भी सफलता न तो मिलनी थी और न मिली।

इसके अलावा लहेरियासराय और दरभंगा शहर की दरभंगा-बागमती की बाढ़ से रक्षा के लिए 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध में मब्बी से लेकर एकमीघाट तक शहर को घेरते हुए एक सुरक्षा बांध बनाया गया जिसे बाद में सिरनियाँ तक बढ़ाया गया। यह वही स्थान है जहाँ दरभंगा-बागमती हायाघाट के पुल संख्या 17 से पहले बागमती नदी से मिल जाती है और सम्मिलित धारा करेह नाम से आगे बढ़ती है। दरभंगा-लहेरियासराय शहर के रिंग बांध में चार स्थान ऐसे पाये गए जहाँ स्थानाभाव के कारण मिट्टी का बांध आगे ले जाना संभव नहीं था। ऐसी जगहों पर ईंट या कंक्रीट का पक्का काम करके जगह की कमी को पूरा किया गया।

(उपर्युक्त लेख डॉ. दिनेश कुमार मिश्र द्वारा रचित पुस्तक "बागमती की सद्गति" से संकलित है)

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