मिथिला की
भौगोलिक परिस्थितियाँ विशेष प्रकार की हैं। वर्षा की अधिकता है। नदियों के जल
ग्रहण क्षेत्र की मिट्टी भुरभुरी है जिससे नदियों में भारी मात्रा में गाद आती है।
नदी के किनारों के कटाव रोक सकने में भुरभुरी मिट्टी वाली गाद की क्षमता प्राय:
नहीं के बराबर है। अत:,
यहाँ बेसंभाल बाढ़ आना कोई अप्रत्याशित घटना
नहीं होती। अत्यधिक मात्रा में गाद आने का मतलब है कि उसके भारी कण जमीन पर पहले
बैठेंगे,
उसके बाद मध्यम आकार के कण और उसके बाद ही नदी
हलके कण दूर दराज के इलाकों में पहुँचाने में कामयाब होगी। यह भी तय है कि नदी की
पेटी उत्तरोत्तर ऊँची होती रहेगी और उसके आस-पास की जमीन भी उसी अनुपात में ऊपर
उठेगी। यह क्रम नियमित रूप से चलता है और नदियाँ इसी तरह से भूमि निर्माण करती
हैं। नदी और उसके कछार के लेवेल के बीच संतुलन भी इसी तरह कायम रहता है। भारतवर्ष
(बिहार) की बागमती घाटी में यह परिस्थितियाँ प्रकृति द्वारा तय करके दी हुई हैं
अतः अगर कोई यह सोचता हो कि यह क्षेत्र पूरी तरह से बाढ़ मुक्त हो जायेगा तो यह
दिवास्वप्न ही होगा। सच शायद यह है कि पानी की प्रचुरता और हर साल बाढ़ के पानी के
साथ आने चाली गाद की वजह से ही इस घाटी की जमीन को अपूर्व उर्वरक क्षमता मिलती थी।
पूरे साल इलाके में कभी भी पानी की कमी का न होना ही यहाँ बड़ी संख्या में लोगों
को बसने के लिए प्रेरित करता रहा होगा। नदियों तथा उत्तर बिहार की जल सम्पदा को ही
प्रताप है कि यहाँ की महिलाओं के सिर या कमर पर टिके घड़े अभी तक दिखाई नहीं
पड़ते। देश के बहुत से हिस्सों में यह घड़े महिलाओं के अविभाज्य अंग के रूप में
मौजूद रहते हैं। 2001
की जनगणना के अनुसार बागमती घाटी में पड़ने
वाले जिलों में जनसंख्या घनत्व विहार के अन्य जिलों की अपेक्षा कहीं ज्यादा था।
सीतामढ़ी में जनसंख्या का घनत्व 1169 व्यक्ति
प्रति वर्ग किलोमीटर था। यह संख्या शिवहर के लिए 1165, मधुबनी के लिए 1021, मुजफ्फरपुर के लिए 1179,
दरभंगा के लिए 1446, समस्तीपुर के लिए 1169 तथा
खगड़िया के लिए 859
थी। प्रति वर्ग किलोमीटर में इतने अधिक लोगों
को रिहाइश अकारण नहीं हुई होगी क्योंकि अगर पानी की बहुतायत और बाढ़ इस क्षेत्र की
मूल समस्या रही होती तो यहाँ के बाशिन्दै यह इलाका खाली करके कब के किसी सुविधाजनक
जगह चले गए होते। वैसी परिस्थिति में जनसंख्या का यही घनत्व शायद राजस्थान
रायलसीमा,
दण्डकारण्य और विदर्भ आदि
क्षेत्रों में हुआ होता। पानी के साथ आने वाली
गाद की उर्वरक क्षमता पर इंजीनियरों और किसानों की राय कभी-कभी नहीं मिलती है।
बाढ़ वाले इलाकों में अमूमन अकाल नहीं पड़ता है। बाढ़ के समय लोगों को परेशानियाँ
जरूर होती हैं मगर बाढ़ के बाद वाली फसल नियमत: जबर्दस्त होती है। यह कृषि उत्पादन
बाढ़ में हुई फसल के नुकसान की भी क्षतिपूर्ति कर दिया करता है लेकिन आजकल प्रति
हेक्टेयर रासायनिक खाद का उपयोग विकास की गति को नापने के एक पैमाने के रूप में
इस्तेमाल होने लगा है। इसका सीधा मतलब है कि अगर किसी के खेत में रासायनिक खाद का
उपयोग नहीं होता है या कम होता है तो वहाँ का किसान प्रगतिशील नहीं है और ऐसा
क्षेत्र कृषि की दृष्टि से विकसित नहीं है। विचारधारा में यह नया परिवर्तन है।
अंग्रेजों ने जब
भारत पर कब्जा जमाया तब उनकी नीयत हर संभव तरीके से देश को चूसने और अपनी तिजोरी
भरने की थी। इसी लालच में उन्होंने देश में 'आधुनिक’ सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण के काम शुरू किये। उनका
अनुमान था कि अगर किसी स्थान को बाढ़ से मुक्त कर दिया जाए तो वहाँ सिंचाई की
जरूरत अपने आप पड़ने लगेगी। इस तरह से जहाँ वे बाढ़ नियंत्रण जैसा लोक हितकारी काम
करके उसके एवज में पैसा वसूल करने का सपना देख रहे थे तो दूसरी तरफ बाढ़ मुक्त
इलाके में सिंचाई की व्यवस्था करके वह अपने फायदे को दुगुना कर लेना चाहते थे। गैर
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में उन्होंने अपनी ख्वाहिश को अंजाम तक पहुँचा दिया मगर
यह तभी हुआ जब उन्होंने हमारी पारम्परिक सिंचाई व्यवस्था की रीढ़ तोड़ कर अपनी
बनायी हुई व्यवस्था को थोपा। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में जरूर उनको मुंह की खानी
पड़ी। उन्होंने सोचा था कि नदियों पर तटबन्धों का निर्माण करके यह काम आसानी से कर
लेंगे, मगर इस काम में फायदे की जगह नुकसान होने लगा, तो उन्होंने इस उपक्रम से
अपना हाथ खींच लिया.