इस साल बिहार में
वर्षा बहुत देर से हो रही है और बहुत जगहों पर अभी भी बादलों की आँख मिचौली चल ही
रही है. 1957 दिसंबर की बात
है, उस साल बिहार में इस साल की तरह सूखा पड़ा था और विधान सभा में सूखे के निवारण
पर बहस चल रही थी. फर्क सिर्फ इतना है कि 1957 की बहस वर्षा का मौसम समाप्त हो जाने के बाद हो रही थी और
इस साल बहुत सी जगहों पर बरसात का मौसम अभी शुरू ही नहीं हुआ है. विधायक
राघवेन्द्र नारायण सिंह ने अपनी बात कुछ इस तरह से रखी.
‘कल शाम को पुलिस
के एक इन्स्पेक्टर से मेरी मुलाकात हुई तो उसने एक अजीब किस्सा सुनाया. एक जगह
सेंध पड़ी थी जिसके लिए वह एक मुसहर को गिरफ्तार करने के लिए गए. उन्होंने देखा कि
उसके तीन बच्चे थे जिनके शरीर पर केवल चमडा बचा था और उनकी माँ हांफती हुई बाहर
निकली और उसने कहा कि बाबू! घर में खाने को नहीं था इसलिए चोरी की है. आप इसे पकड़
कर ले जाइए. इन्स्पेक्टर धर्म संकट में पड़ गया. सोचने लगा कि धर्म की रक्षा करूं
या न्याय का पालन करूं? उसके पास जो पैसा
था वह उसने उस अभागिन को दे दिया और उसको (मुसहर को) पकड़ कर ले गया.’ हमारे क्षेत्र की ऐसी भयंकर स्थिति है.’
‘दूसरी घटना कुछ
इस प्रकार थी.’ मैं एस. डी. ओ.
के साथ दो दिनों तक दौरे पर था. ग्राम पंचायत के प्रधानों से मुलाक़ात हुई और
एस.डी. ओ. द्वारा उन मुखियों से कहा गया कि अगर कोई हमारे पास इसकी सूचना लेकर
आएगा कि कोई भूख से मरा है तो पहले मैं उसे जेल में डालूंगा. इस कथन की पृष्ठ भूमि
में क्या बात थी उसे आप सुन लीजिये. मुखिया की जिम्मेवारी हो सकती है कि अन्न रहते
हुए भी कोई भूखों मरने न पाए. अगर उसके यहाँ कोई भूखों मरता है और जानकारी वक़्त पर
नहीं मिल पाती है तो उसकी यह नैतिक जिम्मेवारी है कि वह इसकी खबर ऊंचे अफसरों को
दे. उसके बाद कहा जाए कि उसको हिरासत में दे दिया जायेगा तो यह बात समझ में आती
है. अगर मुखिया की जिम्मेवारी है और वह हिरासत में जा सकता है तो क्या एस. डी. ओ.
की जिम्मेवारी नहीं बनती है कि वह क्यों हिरासत में नहीं जा सकता है, कलक्टर हिरासत में लिया जा सकता है. और स्वयं
खाद्य मंत्री की क्या हालत होगी जिसके राज्य में ऐसी घटना हो कि अन्न के बिना लोग
भूखों मरें.”
सरकार ने तब यह
कह कर पल्ला झाड लिया था कि जिस एस. डी. ओ. की बात विधायक जी कह रहे हैं वैसा
एस.डी.ओ. बहुत पहले वहां पदस्थापित था.
मैं बिहार के
सूखे और बाढ़ का इतिहास लिख रहा हूँ, उस क्रम में मेरी नज़र इस दस्तावेज़ पर पड़ी.
सोचा सबके साथ शेयर करूँ .
सुखाड़ की चोट - 2
पिछली बार हमने
बिहार में 1957 के सूखे पर
चर्चा की थी. इस विषय पर दरोगा प्रसाद राय भी विधान सभा में बोले जिनका कहना था,
‘सरकार को भदई की फसल देख कर ही अंदाजा कर लेना
चाहिए था कि अब लोगों के निराहार रहने का वक़्त आ गया है. अगर इसी तरह सरकार काम
करती रही तो आगे का क्या नतीजा होगा?...सरकार तो उसी तरह व्यवहार करती है जैसे बिल्ली के सामने पड़ जाने पर कबूतर करता
है, आँख मूँद लेता है और
समझता है कि खतरा टल गया है लेकिन इससे खतरा टलता नहीं है. सरकार को जब यह मालुम
था कि फसल अच्छी नहीं होने वाली है यानी अप्रैल, मई, जून के महीने में
ही उसे आने वाली परिस्थिति का ज्ञान हो गया था तब उसे उसी समय प्रबंध करना चाहिए
था. सरकार बीज पहुंचाने में बिलकुल असफल रही है. आप हार्ड मैनुअल लेबर में लाखों
करोड़ों लोगों को काम देने वाले थे. (लेकिन) उनके थाने की आबादी डेढ़ लाख थी और वहाँ
एक भी स्कीम चालू नहीं की गई थी और कब चालू होगी यह भी कोई नहीं जानता था. यह कोई
गंडक या कोसी योजना तो है नहीं जो एक्सपर्ट की जरूरत पड़ेगी और बहुत सी तरह तरह की
सामग्रियों की जरूरत पड़ेगी. एक-एक दो-दो चौकीदारी यूनियन ले लेते और उसमें दो ही
तीन पोखरे उड़हवा देते तो सैकड़ों हज़ारों लोगों को काम मिल जाता.’
उन्होनें सरकार
को सुझाया कि सरकार के पास दो करोड़ रुपया किसानों का बाकी है जो सरकार की योजनाओं
के लिए उनकी ज़मीन का पावना था. सरकार ने जमीन तो (वापस) दी नहीं उलटे रजिस्ट्री भी
नहीं होने के कारण किसानों को उसकी मालगुजारी भी देनी पड़ रही है. किसानों का पैसा
उन्हें दे देने से उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी. किसानो को चीनी मिलों से अग्रिम राशि
दिलवाने के भी उन्होनें सिफारिश की थी.
उपर्युक्त लेख दिनेश कुमार मिश्र जी
की फेसबुक टाइमलाइन से उद्धृत किया गया है.