एम. पी. मथरानी का बागमती सिंचाई परियोजना प्रस्ताव (1956)
आजाद भारत में एक बार फिर नये सिरे से बागमती से सिंचाई के
प्रस्ताव जनता और जन प्रतिनिधियों की ओर से आने लगे।1953 में आयी भयंकर बाढ़ के बाद और
कोसी योजना को स्वीकृति से पहले बिहार विधान सभा में ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह ने
बागमती परियोजना का सवाल उठाया उनका कहना था,
"...बागमती में कम से कम दस बार बाढ़ आती है और दस बार पानी निकलता है। मगर बागमती की पहले जो हालत थी वह धीरे धीरे बदलती जा रही है। इतना ज्यादा सिल्टिंग हो गया है कि पानी निकलने में देर होती है। बागमती का पहले जो रुख था यदि उस स्थिति में आज उसे ला दिया जाए तो बागमती से लोगों को उपज के संबंध में भी फायदा होगा।...ऐसी नदी जिस प्रदेश में हो, जिस एरिया में हो उसे अन्न का भण्डार समझा जाता है मगर सरकार का ध्यान उस तरफ अभी नहीं गया है।''
पहली पंचवर्षीय योजना के अन्त में नदी पर बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई परियोजना
के निर्माण के लिए प्रस्ताव का स्वरूप कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगा था। अब यह तय हुआ
कि बागमती नदी पर दो अलग-अलग वीयर बनाये जायें पहला वीयर नदी पर भारत नेपाल सीमा
पर प्रस्तावित हुआ तो दूसरा वीयर परदेसिया गाँव में बनाने की बात उठी। इसी जगह से
नदी की एक नयी धारा फूटती थी और यह जगह लालबकैया और बागमती के संग से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण में तथा हिरमा गाँव से 24 किलोमीटर उत्तर में है। हिरम्मा में नदी की एक
दूसरी धारा फूटती है।
बिहार के तत्कालीन चौफ़ इंजीनियर एम० पी० मथरानी की एक रिपोर्ट (1956) के अनुसार नेपाल के तराई वाले हिस्से से लेकर
कमला से बागमती नदी के संगम तत्कालीन मुंगेर जिले के झमटा गाँव तक बागमती नदी के
दोनों किनारों पर बाढ़ सुरक्षा के लिए तटबन्धों का प्रस्ताव किया गया था। इस
परियोजना का नाम बागमती तटबन्ध परियोजना था। प्रस्तावित वीयरों के निर्माण का
उद्देश्य सिंचाई के साथ-साथ नदी की दिशा स्थिर करना तथा उसे एक हद तक नियंत्रित
करने का प्रयास भी करना था। बागमती नदी का अक्टूबर महीने का प्रवाह 1500 क्यूसेक के आस पास रहता है जिसमें से इस योजना
में 750 क्यूसेक नेपाल के लिए नियत किया गया था और 750 क्यूसेक पानी भारत के हिस्से में आने वाला था।
भारत नेपाल सीमा पर बनाये जाने वाले पहले बीयर के माध्यम से नेपाल में स्थानीय
उपयोग के लिये 750
क्यूसेक पानी को उपलब्ध
करवाना था जबकि भारत के लिए नियत 750 क्यूसेक में से 375
क्यूसेक पानी इसी वीयर
से सिंचाई के लिए मिलना था। बाकी के 375 क्यूसेक पानी को वोयर के ऊपर से बहते हुए भारत में प्रवेश करना था जहाँ
नीचे उसका उपयोग होता। पहले बीयर से आने वाले इस प्रवाह को हिरम्मा वाले दूसरे
वीयर में अटका लेने की बात थी। प्रस्तावित पहले वीयर और दूसरे वीयर के बीच में ही लाल बकैया नदी
बागमती से संगम करती है और यह उम्मीद की गयी थी कि दूसरे बीयर (हिम्मा) में
लालबकैया का कुछ पानी और शामिल हो जायेगा पर क्योंकि लालबकैया में इसी दरम्यान
पहले से ही एक बीयर बना कर उसके पानी को पूर्वी चम्पारण की तरफ मोड़ दिया गया था
इसलिए सिम्मा में पानी की आमद पर कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला था।
हिरम्मा में प्रस्तावित वीयर से वहाँ की मुख्य नहर से कोई 350 क्यूसेक पानी मुहैया करवाने की बात थी। बागमती से फूट कर निकलने वाली एक धारा बिलन्दपुर गाँव के पास शुरू होती थी जिसे सियारी धार कहते हैं। पूरब की ओर बहती हुई यह धारा पहले मुजफ्फरपुर सीतामढ़ी सड़क को कटौंझा के पास एक पुल से पार करती थी और लगभग 64 किलोमीटर की यात्रा तय करके मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट प्रखंड में भागवतपुर (भगमतपुर) गाँव के पास लखनदेई नदी से मिल जाती थी। यह संगम स्थल मुजफ्फरपुर दरभंगा मार्ग से लगभग 13 किलोमीटर नीचे पड़ता है। 1950 के दशक के पूर्वार्द्ध में सियारी धार की उड़ाही की गयी थी और इसी का उपयोग नहर के रूप में करने का प्रस्ताव किया गया था।
पूरब में लखनदेई,
दक्षिण में सियारी धार
और दक्षिण-पश्चिम में बागमती नदी से घिरे इस क्षेत्र का रकबा 330 वर्ग मील (लगभग 850 वर्ग किलोमीटर या 2,11,200 एकड़) है। 750 क्यूसेक उपलब्ध पानी से रब्बी के मौसम में
प्रायः 11,000
एकड़ क्षेत्र पर सिंचाई
करना मुश्किल नहीं होता,
ऐसा मथरानी का मानना
था।
इस कथित क्षेत्र में बारिश कम नहीं होती और इसका परिमाण 51 इंच के आस-पास रहता है और यह किसी भी मायने में धान के लिये पर्याप्त होता है मगर समस्या तब आती थी जब दो बारिशों के बीच का अन्तर असामान्य रूप से बढ़ जाए और सिंचाई विभाग के अनुसार ऐसा अक्सर होता था। इस वजह से खरीफ की फसल पर आँच आती है। खरीफ की फसल बहुत कुछ हथिया नक्षत्र में बरसने वाले पानी पर निर्भर करती है। 1919 और 1933 के बीच के पन्द्रह वर्षों में, जिसके लिए आँकड़े उपलब्ध थे, हथिया में 9 सालों में वर्षा 1.5 इंच से भी कम हुई जबकि मात्र 6 वर्षों में बारिश 1.5 इंच से ज्यादा हुई। ऐसी परिस्थिति में खरीफ की फसल बचाने के लिए यह जरूरी माना गया कि सिंचाई का पुख्ता इंतजाम मौजूद रहे। सरकार का मानना था कि अगर खरीफ की फसल को सींचने की सुनिश्चित व्यवस्था कर दी जाती है तो यह फसल कभी भी मारी नहीं जायेगी और कुछ पानी रबी की फसल के लिए भी दिया जा सकेगा। 1956 में बागमती परियोजना में सिंचाई का जो प्रस्ताव किया गया था उसकी लागत 23637500 रुपये थी और उसमें 56,250 एकड़ जमीन पर सिंचाई कर लेने का अनुमान किया गया था।
किसानों के कल्याण के लिए सुनिश्चित सिंचाई से बेहतर कोई बात नहीं होती और इस बात को सभी अच्छी तरह समझते हैं। इस पानी में बागमती जैसी नदी की अपूर्व उर्वरा शक्ति वाली गाद अगर मिल जाए तो होने वाली फसल की कल्पना मात्र से किसानों की बाड़ें खिल जाती हैं। सरकार की इच्छाशक्ति और इंजीनियरों के शिल्प कौशल से जिस बागमती सिंचाई परियोजना का जन्म होना था, दुर्भाग्यवश वह शुभ मुहूर्त आज तक (2010) नहीं आया सिंचाई के वायदे की केवल राजनीति हुई।
1957 में बिहार में राज्य व्यापी सूखा पड़ा था और उससे मुजफ्फरपुर जिला भी
प्रभावित हुआ था जिसकी वजह से सिंचाई की मांग में स्वाभाविक रूप से तेजी आयी और आम
तौर पर धारणा यह बनी कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में बागमती परियोजना को हाथ में
लेने का समय बीत चुका है मगर तीसरी पंचवर्षीय योजना में इसे क्रियान्वयन के लिए
जरूर शामिल कर लिया जायेगा, ऐसा मगर हुआ नहीं। अर्थाभाव के कारण यह योजना खटाई में पड़
गयी। सरकार द्वारा बागमती घाटी में सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं किये जाने की शिकायत
करते हुए गिरिजा नन्दन सिंह ने एक बार फिर सरकार को चेताया,
"... बागमती क्षेत्र की जमीन अत्यधिक उर्वर है। बागमती द्वारा लायी गयी मिट्टी की खाद से यह पटी है। धान तथा रब्बी इस क्षेत्र को मुख्य फसलें हैं परन्तु यह क्षेत्र बराबर बाद और सूखे का शिकार होता रहा है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के लोग भूखों मर रहे हैं। यद्यपि इस क्षेत्र से होकर अत्यधिक पानी बरता है, फिर भी कुछ छोटे-छोटे इलाकों को छोड़ कर यहाँ की खेती केवल स्थानीय वर्षा पर ही निर्भर है और जब वर्षा नहीं होती है तब अकाल की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सम्पूर्ण भू-भाग में वर्षा अनिश्चित तथा अनियमित रूप से होती है। इतना बड़ा तथा उर्वर भू-भाग देश में और कोई नहीं है जो इस प्रकार सूखे का बराबर शिकार होता है।''
मुजफ्फरपुर जिले के सीतामढ़ी अनुमण्डल में बाढ़ से लगातार होने वाले नुकसान
का हवाला देते हुए उन्होंने केन्द्र तथा राज्य सरकार से अपील की कि वह क्षेत्र की
समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें और तीसरी पंचवर्षीय योजना में बागमती
योजना को शामिल करें।
इधर 1962 के चीन युद्ध की आशंका ने इस
तरह की सारी योजनाओं पर प्रश्न चिह्न लगा दिये थे और उसका शिकार बागमती भी हुई।
आशा की किरण एक बार फिर फूटी जब 11 नवम्बर 1963 को केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ० के० एल० राव सीतामढ़ी आये।
सीतामढ़ी में 12
नवम्बर 1963 को डॉ० राव ने बागमती अधवारा सम्मेलन का
उद्घाटन करते हुए कहा कि बागमती क्षेत्र की धरती बहुत उपजाऊ है और अगर इसकी बाढ़
से रक्षा की जा सके तो अन्न के उत्पादन में बहुत बढ़ोतरी हो सकेगी। विद्युत
उत्पादन तथा अन्न उत्पादन करने वाली योजनाओं का हमेशा स्वागत होना चाहिये। उन्होंने
बागमती पर बराज बना कर उसके दोनों किनारों पर नहरें निकालने का प्रस्ताव किया
जिससे किसानों को सिंचाई की सुविधा मिल सके। नदी के किनारे तटबन्ध बनाये जाने के
बारे में उनका कहना था कि यह योजना बहुत मंहगी होगी। इस सम्मेलन में बिहार के
तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय तथा सिंचाई मंत्री महेश प्रसाद सिन्हा भी
मौजूद थे।''
इस सम्मेलन को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने संसाधनों की कमी को पूरा करने के
लिए बागमती बांड जारी करने का सुझाव दिया जबकि केन्द्रीय मंत्री डॉ० राम सुभग सिंह
ने आश्वासन दिया कि केन्द्र उत्तर बिहार में जूट तथा गन्ने का उत्पादन बढ़ाने के
लिए हर संभव सहायता करेगा।
लेकिन केन्द्र द्वारा राज्य को आर्थिक सहायता देने के लिए जो कुछ भी कहा जाता रहा हो, सच यह था कि चीन से 1962 के युद्ध के बाद देश की आर्थिक स्थिति खराब थी और ऊपर से पाकिस्तान से लगी सीमाओं पर भी तनाव बढ़ रहा था। ऐसे में निर्माण कार्यों के लिए संसाधनों की भीषण कमी थीं और सरकार कुछ विशेष कर सकने की स्थिति में नहीं थी। बिहार के सिंचाई मंत्री का कहना था, ...आज हमारे लिए आर्थिक संकट है और हमारे जेनरल स्कीम के लिए सिर्फ 2 करोड़ 50 लाख रुपये का इस बजट में प्रोवीजन किया गया है। आप देखेंगे कि हमने कितनी स्कीमों को पूरा किया है और कितनी रनिंग स्कीम हैं; जो योजना चल रही है उसमें हमारे कितने पैसे लगेंगे। ...सब से पहला काम सदन का है कि हम लोगों को परेशानी से बचावें और इसके लिए हमको पैसा दिला दें। आज बागमती का तकाजा है और यह नदी (बूदी) गंडक में मिलना चाहती है।
इसके अलावा एक कड़वी सच्चाई यह है कि बिहार में बाढ़ का मुद्दा, भले ही वह थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो, एकाएक इतनी तेजी से उभरता है कि उसके सामने सिंचाई का सारा मसला ही गौण हो जाता है। ऐसा कई बार हुआ है कि बिहार विधान सभा में सूखे और अनावृष्टि पर चर्चा होनी थी मगर ऐन मौके पर इतनी बारिश हो गयी कि स्थिति बाढ़ की बन गयी और सारी बहस का रुख दूसरी तरफ मुड़ गया। आज भी कोसी और गंडक परियोजनाओं में सिंचाई की बदहाली पर चर्चा इसलिए नहीं हो पाती है क्योंकि सारी बहस के बीच बाढ़ का मुद्दा छाया रहता है। वैसे भी सिंचाई की मांग में कभी उस आपातस्थिति का दर्शन नहीं होता जो बाढ़ के समय सहज भाव से बन जाती है। इसलिए सिंचाई का प्रश्न उठाने या उसे लेकर पार्टियों को राजनीति करने का भी मौका मिल जाता है। ऐसी ही शिकायत विधायक त्रिपुरारी प्रसाद सिंह को व्यवस्था से थी जिसकी अभिव्यक्ति उनके बिहार विधान सभा में दिये गए बयान (1968) से होती है,
"...अभी तक सिंचाई के मामले में 20 साल से कांग्रेस सरकार का जो आधार रहा, वह तो राजनैतिक दृष्टिकोण था एवं वह तो राजनैतिक आधार था। उनके निकट जो लोग थे, जिनको वे प्रश्रय देना चाहते थे, वहाँ तो स्कीम ली गई, लेकिन ऐसे क्षेत्र जिनकी मंत्री के यहाँ पहुँच नहीं थी उनका क्षेत्र उपेक्षित रहा, ध्यान नहीं दिया गया। जब संविद की सरकार बनी तो हमारा विश्वास था कि बिना किसी राजनैतिक दृष्टि के तमाम क्षेत्रों में, जिन क्षेत्रों में पटवन के अभाव में हर साल मारा पड़ता है, दो दो, तीन तीन वर्ष में अकाल की लपेट में आना पड़ता है उसकी तरफ सरकार का ध्यान अवश्य जायेगा, लेकिन बहुत दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि उस संविद सरकार का भी दृष्टिकोण, जो 20 साल की कांग्रेसी सरकार का रहा, वही दृष्टिकोण उनका भी रहा। सरकार बार बार कहती है कि भारत सरकार हमारे रास्ते में बाधक है। यह कह कर बिहार की जनता को बरगलाया नहीं जा सकता है।"
बागमती घाटी में सिंचाई के नाम पर विभिन्न सरकारों द्वारा बरगलाये जाने का सिलसिला अभी तक खत्म नहीं हुआ है। बागमती नदी द्वारा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई की जो भी मांगें उन दिनों उठती थीं उनके केन्द्र में कहीं न कहीं एम० पी० मथरानी द्वारा 1956 में तैयार की गयी परियोजना रिपोर्ट ही रहा करती थी क्योंकि वही एक उपलब्ध आधारपत्र था। आधिकारिक रूप से इस योजना को सरकार की स्वीकृति के लिए 1969 में प्रस्तुत किया गया और बिहार सरकार द्वारा इसकी प्रशासनिक स्वीकृति दिसम्बर 1970 में दी गयी। इस योजना के अनुसार बागमती नदी की जो धारा देवापुर, लहसुनियाँ, मकसूदपुर, कनौजर घाट, जठमलपुर और हाया घाट होकर बहती थी, उसके दोनों किनारों पर तटबन्धों का निर्माण करके 397 वर्गमील (1016 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र को बाद से सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया था।
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