पवित्रता का अगर कोई उदाहरण देना हो तो स्वाभाविक रूप से गंगा, यमुना, सरस्वती या नर्मदा का स्मरण हो आता है। कहा भी है,
‘त्रिभिः सारस्वतं तोयम् सप्ताहेन तु यामुनम्
सरिघ: पुनाति गांगेयम् दर्शनादैव तु नार्मदम्।’
अर्थात् सरस्वती नदी के पानी में स्नान और इसके पान से मनुष्य तीन दिन में पवित्र हो जाता है, यमुना नदी के पानी से पवित्र होने में एक सप्ताह का समय लगता है, गंगा तुरन्त पवित्र करती है और नर्मदा का तो दर्शन मात्र ही पवित्रता प्रदान कर देता है। यह श्लोक जब भी लिखा गया होगा उस समय तो यह नदियाँ निश्चित रूप से पवित्रता की प्रतिमूर्ति रही होंगी मगर आज उनकी स्थिति दयनीय हो गयी है। नदियों की पवित्रता का यह बखान कुछ तो उनके प्रति श्रद्धा, कुछ परम्परा, कुछ वास्तविकता और कुछ स्थानीय रचनाकारों की अपनी भौगोलिक प्रतिबद्धता के कारण भी होता रहा होगा। अपने क्षेत्र विशेष की नदियों का गुणगान करते समय बहुत से साहित्यकार पवित्रता प्राप्त करने के लिए नदी के दर्शन लाभ की सीमा को लांघ कर उसे नदी के स्मरण मात्र से पवित्र कर देने की क्षमता तक ले गए। यानी नदी का स्मरण भर कीजिये और तन-मन सब निर्मल। प्रचलित साहित्य में बागमती नदी की पवित्रता प्रदान करने की क्षमता का बहुत वर्णन नहीं मिलता है और वह शायद इसलिए कि विशालता के क्रम में इस नदी का स्थान थोड़ा नीचे पड़ता है। मगर वाघमती और वेगवती दोनों नामों से इस नदी को सम्बोधित करता हुआ वराहपुराण बागमती के जल को भागीरथी के जल से भी सौ गुणा पवित्र मानता है और उसके अनुसार बागमती नदी में स्नान करने वाला व्यक्ति सीधे सूर्यलोक को प्राप्त करता है।
वराहपुराण में ही एक अन्य सर्ग में कहा गया है ‘‘...यह वेगवती नामक भागीरथी स्नान करने वाले मनुष्यों का सारा कलुष धो डालती है, कीर्तन करने से हृदय को पवित्र कर देती है और दर्शन मात्र से ऐश्वर्य प्रदान करती है। इस वेगवती नाम की भागीरथी के जल का पान करने से तथा इसमें स्नान करने से मनुष्यों की सात पीढि़याँ तर जाती हैं। इसके उद्गम स्थान पर देवता विचरण करते हैं जहाँ स्नान करने से मनुष्य कभी पुनर्जन्म धारण नहीं करता।’’