बागमती को बांध देने और उसके मुक्त होने की एक ऐसी ही कहानी बौद्ध धर्म ग्रन्थों में भी मिलती है। कहा जाता है कि हिमालय के दक्षिणी भाग में हिमाच्छादित पर्वतों के नीचे एक बहुत विशाल सरोवर हुआ करता था जिसकी रचना सत्चिद् बुद्ध ने की थी। नागों का निवास स्थान होने के कारण इस सरोवर को नागहद कहा जाता था। सतयुग में बन्धुमती नगरी से विपस्वी बुद्ध इस क्षेत्र में आये और उन्होंने नागहद के पश्चिम में स्थित एक पर्वत पर निवास किया और चैत्र मास की पूर्णमासी के दिन उन्होंने सरोवर में कमल के फूल का बीज स्थापित किया। जिस पहाड़ पर विपस्वी बुद्ध ने अपना निवास बनाया उसका नाम उन्होंने मात्रेच्च पर्वत रखा और अपने शिष्यों को भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में बताया तथा उन्हें वहीं रहने के लिए आदेश दे कर वह वापस बन्धुमती नगरी की ओर चले गए। इस घटना को स्मरण करने के लिए चैत्र मास की पूर्णमासी के दिन इस स्थान पर प्रति-वर्ष मेला लगता है।
सतयुग में ही नागहद में विपस्वी बुद्ध द्वारा रोपित बीज से कमल का एक फूल खिला और उसके बीच से आश्विन मास की पूर्णमासी के दिन प्रकाश पुंज के रूप में स्वयंभू प्रगट हुए। स्वयंभू की कीर्ति सुन कर अरुणपुरी से शिखी बुद्ध उस स्थान पर आये और उन्होंने पास के एक पर्वत पर स्थित होकर पूजा-अर्चना की और ध्यान किया। उन्होंने कमल फूल से निकलने वाली किरण की आराधना की तथा मकर संक्रान्ति के दिन अपने शिष्यों को ध्यानोच्चशिखर पर रखा और उन्हें उपदेश दिया। आज भी इस स्थान पर मकर संक्रान्ति के दिन मेला लगता है।
इसके बाद त्रेतायुग में अनुपम देश से विश्वभू-बुद्ध उसी स्थान पर आये और उन्होंने एक अन्य पर्वत से स्वयंभू बुद्ध के दर्शन किये और उस पर्वत पर पेड़ों से गिरने वाले एक लाख फूलों से उनका पूजन किया। इस पर्वत का नाम उन्होंने फूलोच्च पर्वत रखा। उन्होंने भी अपने शिष्यों को उपदेश दिया और उन्हें वह स्थान बताया जहाँ से नागहद सरोवर के पानी को निस्सरित कर देना चाहिये। ऐसा कह कर विश्वभू-बुद्ध वापस अपने स्थान को चले गए।
इसके बाद त्रेतायुग में ही महाचीन से बोधिसत्व मंजुश्री उस स्थान पर आये और उन्होंने महामण्डप पर्वत पर तीन रात्रि निवास किया और वहीं से उन्होंने स्वयंभू के प्रकाश पुंज का दर्शन किया। इसके बाद उनके मन में नागहद के पानी को मुक्त कर देने का विचार आया। ऐसा सोच कर वह दक्षिण की तरफ गए और उन्होंने वरदा और मोक्षदा नाम की दो देवियों को फूलोच्च और ध्यानोच्च पर्वत पर स्थापित किया और स्वयं बीच में खड़े हो गए। इसके बाद उन्होंने पर्वत के बीच से नागहद को चीर दिया और उसके पानी को बहा दिया। नागहद से जब पानी बहने लगा तो उसके साथ बहुत से नाग तथा दूसरे जानवर भी बह कर बाहर जाने लगे तब बोधिसत्व मंजुश्री ने नागों के स्वामी कर्कोटक से वहीं रहने के लिए अनुरोध किया और इसी के साथ उन्होंने कर्कोटक को घाटी की सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्वामी बना दिया।
मंजुश्री ने ही गुह्येश्वरी के पास बहुत से पेड़ लगाये और अपने बहुत से शिष्यों को उपदेश देते हुए वहीं रहने का निर्देश किया। उन्होंने धर्माकर नाम के राजा को वहाँ का शासक बनाया और वापस अपने स्थान को चले गए।
इसके बाद त्रेतायुग में ही क्षेमवती नगरी से क्रकुच्छन्द बुद्ध उस स्थान पर आये और उन्होंने गुह्येश्वरी को स्वयंभू के प्रकाश पुंज के रूप में देखा और उनको लगा कि जैसे उनके पूर्ववर्ती बहुत से बुद्धों ने कई पर्वतों को महत्वपूर्ण तीर्थ बना दिया है वैसे ही यह काम उन्हें भी करना चाहिये। ऐसा विचार कर वह उत्तर दिशा में एक ऊँचे पर्वत की ओर गए और वहीं रहने लगे। वहीं से उन्होंने अपने गृहस्थ शिष्यों और भिक्षुओं को स्वयंभू और गुह्येश्वरी के प्रताप का उपदेश दिया और 700 ब्राह्मण तथा छेत्री शिष्यों को दीक्षित किया लेकिन जब उन शिष्यों के अभिषेक की बात आई तब क्रकुच्छन्द बुद्ध को भान हुआ कि पहाड़ पर पानी तो उपलब्ध ही नहीं है। तब उन्होंने स्वयंभू और गुह्येश्वरी का आवाहन किया और उनसे पहाड़ पर पानी प्रवाहित करने का अनुरोध किया। इसके साथ ही उन्होंने पहाड़ पर अपना अंगूठा गड़ाया जिससे पहाड़ में छेद हो गया और उससे गंगा जी प्रगट हुईं। गंगा ने बुद्ध को अर्घ्य दिया और पानी के रूप में परिवर्तित होकर मकर संक्रान्ति के दिन वहाँ से बह निकलीं। धर्मशास्त्र गंगा के इस स्वरूप को बागमती नाम देते हैं।
बागमती की विभिन्न सहायक धाराओं के बारे में बौद्ध दर्शन की भिन्न मान्यताएं हैं। हिन्दुओं की विष्णुमती का वर्णन बौद्ध शास्त्रें में केशवती नाम से होता है। क्रकुच्छन्द बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं को सबसे पहले दीक्षित करना शुरू किया। क्षौर कर्म के पश्चात उनके बाल (केश) इसी नदी में फेंके गए थे। मणिमती नाम की नदी का यह नाम इसलिए पड़ा कि इसी नदी के किनारे राजकुमार मणिचूड़ ने अपने सिर की मणि अपनी प्रेमिका को उपहार में दे दी थी।